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Jhansi Ki Rani – रानी लक्ष्मी बाई की कहानी, जाने इनके शौर्य और वीरता के बारे में

by Naveen Kumar Leave a Comment

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दोस्तों इस लेख में हम वीरांगना झांसी की रानी, महारानी लक्ष्मीबाई के जीवन चरित्र के बारे जानने वाले है। जिसमें हम रानी लक्ष्मी बाई के जन्म से लेकर मृत्यु तक की सभी जानकारी परिचित होने वाले है।

Jhansi Ki Rani - रानी लक्ष्मीबाई की कहानी
Jhansi Ki Rani – रानी लक्ष्मीबाई की कहानी

रानी लक्ष्मी बाई की कहानी (Rani Laxmi Bai Biography in Hindi)

झाँसी की रानी, महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर 1835 में हुआ था। उनके पिताजी का नाम ‘मोरोपंत तांबे’ और माताजी का नाम ‘भागीरथीबाई तांबे’ था।

महारानी लक्ष्मीबाई के बचपन का नाम ‘मणिकर्णिका‘ था, इसलिये घर में सभी उन्हें प्यार से ‘मनु‘ कहकर बुलाते थे। महारानी लक्ष्मीबाई के पिता मोरोपन्त तांबे एक मराठी थे और वे पेशवा बाजीराव के पास नौकरी करते थे।

रानी लक्ष्मीबाई की माता भागीरथीबाई एक सुसंस्कृत, बुद्धिमान एवं धार्मिक महिला थीं। जब रानी लक्ष्मीबाई (मनु) केवल चार वर्ष की थी, तब उनकी माता भागीरथीबाई की मृत्यु हो गयी।

तब घर में ‘मनु’ उर्फ़ ‘रानी लक्ष्मीबाई’ की देखभाल के लिये कोई नहीं था, क्योंकि रानी लक्ष्मीबाई के पिता मोरोपन्त तांबे पेशवा बाजीराव के पास नौकरी करते थे। यह बात जब पेशवा बाजीराव पता चली तब उन्होंने लक्ष्मीबाई को दरबार ले आने को कहा, तब लक्ष्मीबाई के पिता मोरोपंत ताम्बे लक्ष्मीबाई को अपने साथ पेशवा बाजीराव के दरबार ले गए।

पेशवा बाजीराव को मनु उर्फ़ लक्ष्मीबाई की शरारते, कुशलता और मासूमियत इतनी पसंद आई की, उन्होंने लक्ष्मीबाई के पालन-पोषण का जिम्मा ले लिया। पेशवा बाजीराव लक्ष्मीबाई का पालन-पोषण उनके दतक पुत्र कुमार नानासाहब के साथ करने लगे।

पेशवा बाजीराव के दतक पुत्र कुमार नानासाहब और रानी लक्ष्मीबाई भाई-बहन की तरह रहने लगे थे, उन्हें वहां किसी भी चीज की कोई कमी नहीं थी, पेशवा बाजीराव उनकी हर जरूरते पूरी कर रहे थे।

 

रानी लक्ष्मी बाई की शादी

धीरे-धीरे लक्ष्मीबाई की उम्र बढती गई, तब तक वे कई कलाओं में माहिर हो चुकी थी। लक्ष्मीबाई केवल सात वर्ष की आयु में ही घुड़सवारी से लेकर तलवार बाजी तक मे पूर्ण रूप से तैयार हो गयी थी। मनु ने शास्त्रों की शिक्षा के साथ शस्त्रों की शिक्षा भी ली थी।

फिर सात साल की उम्र मे ही यानी सन् 1842 में मनु उर्फ लक्ष्मीबाई का विवाह झासी के एक मराठा शासित महाराजा ‘गगाधर राव बाबासाहेब निम्बालकर’ से हो गया और लक्ष्मीबाई ‘रानी लक्ष्मीबाई’ हो गई और तब से ही मनु उर्फ लक्ष्मीबाई ‘झाँसी की रानी‘ बन गई।

कुछ वर्षो बाद यानी सन 1851 में झांसी की रानी महारानी लक्ष्मीबाई ने एक बच्चे को जन्म दिया, पर चार महीने की आयु में ही उसकी मौत हो गई। तब महारानी लक्ष्मीबाई बहुत उदास रहती थी, फिर उनके पति महाराजा गगाधर राव बाबासाहेब निम्बालकर ने उन्हें सलाह दी की वो एक बच्चे गोद ले ले।

क्योकि उस समय राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ चूका था। इसलिए पति के कहे मुताबिक रानी लक्ष्मीबाई ने एक बच्चे को गोद ले लिया और उस बच्चे का नाम ‘दामोदर राव’ रख दिया। इसके कुछ ही दिन बाद 21 नवम्बर 1853 को महाराजा गगाधर राव बाबासाहेब निम्बालकर का निधन हो गया।

 

रानी लक्ष्मी बाई की अंग्रेजो के साथ लड़ाई

पति के मृत्यु के बाद झांसी की रानी लक्ष्मी बाई ने अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को अपने राज्य का उत्तराधिकारी बनाना चाहा, मगर ब्रिटिश सरकार ने उनके दत्तक पुत्र दामोदर राव को उनके राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया।

इस बात पर झांसी की रानी महारानी लक्ष्मीबाई को बहुत क्रोध आ गया, मगर महारानी लक्ष्मीबाई को झांसी की रक्षा करनी थी। उसके बाद ब्रिटिश सरकार ने महारानी लक्ष्मीबाई और उनके दत्तक पुत्र दामोदर राव के नाम से अदालत में एक मुकदमा दायर किया।

लेकिन महारानी लक्ष्मीबाई हिम्मत नहीं हारी और मुकदमा ख़ारिज कर दिया गया। फिर बिना वजह रानी लक्ष्मीबाई को ब्रिटिश सरकारने मार्च 1854 में अपने कब्जे में ले लिया और उन्हें सात्वना के रूप मे एक मोटी पेंशन और लम्बी चौडी सुविधायो का प्रलोभन दिया।

तब वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई का विद्रोह भरा स्वर निकला “मै अपनी झांसी नहीं दुगी” अंग्रेज चाहते थे कि कैसे भी उनका हिन्दुस्थान पर हर तरह से पूरा के पूरा कब्ज़ा हो जाये।

क्योंकि उस समय अंग्रेजी हुकूमत ने कई मराठी रियासतों पर कब्ज़ा कर लिया था और उनकी नजर झांसी पर भी थी, जिसके लिए उन्‍होंने खूब पैंतरे अपनाए, लेकिन मर्दानी झांसी की रानी महारानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे।

कुछ इतिहासकार बताते हैं कि लक्ष्‍मीबाई की अंग्रेजों के साथ लड़ाई महज झांसी के लिए नहीं थी, बल्कि वह जंग विदेशी शासन को भारत से उखाड़ फेंकने के खिलाफ थी।

इसलिए महारानी लक्ष्‍मीबाई ने आसपास के कई राजाओं से संपर्क किया और अंग्रेजों की नीतियों के खिलाफ उन्‍हें एकजुट किया। कुछ राजाओं ने उनका समर्थन किया और कुछ सिर्फ अंग्रेजो के तलवे ही चाटना थे।

समर्थित लोगों की मदद से, महारानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों की कई योजनाओं को विफल कर दिया, उसके बाद रानी लक्ष्मी बाई ने 14,000 सैनिको को की एक मजबूत सेना बनाई।

उनकी इस सेना में पुरुष और महिलाएं भी शामिल थीं, यह मजबूत सेना बनाने के लिए झांसी की रानी महारानी लक्ष्मी बाई को दोस्त खान, खुदा बख्श, गुलाम गौस खान, काशीबाई, सुंदर-मुंदर, मोती बाई, दीवान रघुनाथ सिंह और दीवान जवाहर सिंह जैसे बहादुर योद्धाओं का साथ मिला।

झाँसी की रानी, रानी लक्ष्मीबाई ने सेना बनाने के बाद भारत की आजादी का पहला युद्ध 10 मई 1857 में मेरठ में लड़ा। इस युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई के सैनिकों ने अंग्रेजो को इतना बुरी तरह मारा कि उसके बाद अंग्रेजो ने झाँसी को रानी लक्ष्मीबाई के अधीन ही कर दिया।

इसके कुछ समय बाद सितम्बर-अक्टूबर 1857 में पड़ोसी राजा ओरछा और दतिया के राजाओं ने झांसी पर हमला किया, लेकिन महारानी लक्ष्मीबाई ने शौर्य और वीरता का परिचय दिया और जीत हासिल की।

इसके कुछ समय बाद मार्च 1858 में ब्रिटिश सरकार ने ह्यू रोज नामक कुशल सेनापति के नेतृत्व मे झांसी पर जोर दार हमला करवाया। ह्यू रोज ने लक्ष्मीबाई को आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया, लेकिन लक्ष्मीबाई ने झांसी को बचाने के लिए अकेले जंग का ऐलान कर दिया।

उसके बाद लड़ाई शुरू हो गई, रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजी सेना को मुहतोड़ जवाब दे रही थी, वे उनका इतना जोरदार मुकाबला कर रही थी कि अंग्रेजी सेना लगातार तीन दिनों तक गोलीबारी करने के बावजूद भी किले तक नहीं पहुंच पाई थी।

फिर कुछ दिनों बाद तात्या टोपे कुछ सैनिको के साथ वहां पहुचे, जिससे रानी लक्षीबाई और उसके सनिको का हौसला बुलंद हो गया। इसे देख ह्यू रोज ने पीछे से वार करने का निर्णय लिया और विश्वासघात का सहारा लेकर ह्यू रोज और उसकी सेना 3 अप्रैल को किले में दाखिल हो गई।

अंग्रेज सरकार ने उस समय झाँसी को हथियाने के लिए अपने असंख्य सैन्य बलों के साथ अपनी पूरी ताकत लगा दी थी, फिर भी रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे उनका जमकर मुकाबला कर रहे थे। उसके पास पीछे से वार करने और विश्वासघात का सहारा लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।

फिर भी वह घमासान लड़ाई लगभग 2 सप्ताह तक चली, जिसके बाद अंग्रेज सरकार झाँसी को हथियाने में कामयाब रही। कहा जाता है कि कुछ भारतीय लालची और देशद्रोही राजा अंग्रेजो की सहायता कर रहे थे, जिनके कारण अंग्रेज सरकार झाँसी को हथियाने में कामयाब रही।

उसके बाद लक्ष्मीबाई किसी तरह अपने बेटे दामोदर राव को वहां से बचाने में कामयाब रहीं, तात्या टोपे भी उनके साथ ही थे। उसके बाद वे वहां से कालपी के लिए निकले, उन्होने चौबीस घंटे में 102 किलोमीटर का सफर तय किया और वे कालपी पहुंचे। इसी बीच रानी लक्ष्मीबाई का जो प्रिय घोड़ा था ‘बादल’ उसकी मृत्यु हो गई, कहा जाता है कि यह घोड़ा रानी लक्ष्मीबाई के लिए किसी ढाल से कम नहीं था।

जैसे ही रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे कालपी पहुचे, तब वहां के पेशवा ने उनकी स्थिति को समझा और वहां उन्हें आश्रय दिया और अपनी सैन्य शक्ति भी प्रदान की।

उसके बाद 22 मई 1858 को ह्यू रोज ने कालपी पर आक्रमण कर दिया, तब रानी लक्ष्मीबाई ने वीरता और रणनीति पूर्वक उन्हें परास्त किया और अंग्रेजो को वहां से भागना पड़ा।

फिर कुछ समय पश्चात् 24 मई को ह्यू रोज ने अचानक हजारो सनिको के साथ कालपी पर आक्रमण कर दिया। कहा जाता है कि ये आक्रमण भी अचानक से हुआ था, जिस कारण रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे और राव साहेब पेशवा को वहां से निकलना पड़ा।

उसके बाद वे सभी गोपालपुर में इकट्ठे हुए। तब वहां रानी लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर पर अधिकार प्राप्त करने का सुझाव दिया, ताकि वे अपने लक्ष्य में सफल हो सके और रानी ने ग्वालियर पर अधिकार प्राप्त करने का सुझाव इसलिए दिया क्योंकि ग्वालियर के राजा अंग्रेजों के साथ थे।

उसके बाद रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे ने मिलकर एक विद्रोही सेना के साथ ग्वालियर पर चढ़ाई कर दी और ग्वालियर के महाराजा को हराकर रणनीतिक रूप से ग्वालियर का किला जीत लिया और ग्वालियर का राज्य राव साहेब पेशवा को सौंप दिया।

 

झांसी की रानी की मौत कैसे हुई

कहा जाता है कि 17 जून को रानी लक्ष्मीबाई का अंतिम युद्ध हुआ था और यह युद्ध ग्वालियर में अंग्रेजो के साथ हुआ था। यह युद्ध बहुत ही जोरदार हुआ था, उस समय रानी लक्ष्मीबाई के पास सेना और शश्त्रो का अभाव था, जिसके बावजूद भी रानी लक्ष्मीबाई ने उन्हें जोरदार टक्कर दी थी, अंत में वे गंभीर रूप से घायल हो गई थी।

कई लोगो का मानना है कि रानी लक्ष्मीबाई पुरुषों के कपड़े में थीं इसीलिए घायल होने के बाद उन्हें कोई पहचान नहीं पाया, जो लक्ष्मीबाई के विश्वसनीय सहायक थे, वे लक्ष्मीबाई को एक वैद्य के पास ले गए और उन्हें गंगाजल पिलाया गया। रानी लक्ष्मीबाई की अंतिम इच्छा थी कि उनके शव को कोई भी अंग्रेज हाथ ना लगा पाए। इस तरह ग्वालियर के फूलबाग क्षेत्र में कोटा के सराय के पास उन्हें वीरगति प्राप्त हुई।

झांसी की रानी के मृत्यु को लेकर लोगों के कई मत है, जो इस प्रकार है-

  • 18 जून 1858 को ग्वालियर में रानी लक्ष्मीबाई का अंतिम युद्ध हुआ था, इस युद्ध में रानी ने अपनी सेना का कुशल नेतृत्व किया और अंत में वे घायल हो गई और उन्होंने वीरगति प्राप्त की।
  • 18 जून 1858 को अंग्रेजो के साथ घमासान युद्ध के दौरान एक सैनिक ने छुपके से पीछे से रानी लक्ष्मीबाई पर तलवार से ऐसा जोरदार प्रहार किया कि उनके सिर का दाहिना भाग कट गया और आंख बाहर निकल आई. घायल होते हुए भी रानी लक्ष्मीबाई ने उस अंग्रेज सैनिक का काम तमाम कर दिया और फिर अपने प्राण त्याग दिए।

दोस्तों ये थी कहानी ‘झांसी की रानी, रानी लक्ष्मीबाई‘ की, यदि इससे जुड़ा किसी का कोई भी सवाल है तो, वो नीचे दिए कमेंट बॉक्स में लिखिए और अगर यह लेख पसंद आये तो, इसे अपने दोस्तों में शेयर जरूर करे।

 

 FAQ About Jhansi Ki Rani

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की जयंती कब होती है?

– रानी लक्ष्मीबाई की जयंती हर साल 19 नवंबर को पूरे देश में मनाई जाती है।

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि कब होती है?

– कुछ लोगों के मुताबिक झांसी की रानी की मौत 18 जून को हुई थी, तो कुछ लोगों के मुताबिक 19 जून को हुई थी। इसलिए कुछ लोग झांसी की रानी की पुण्यतिथि 18 जून को मनाते है, तो कुछ लोग 19 जून को।

 

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